तस्करी, फिर बंधुआ मज़दूरी में फंसा मज़दूर आखिरी बार बेटी को नहीं देख पाया – ActionAid India
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तस्करी, फिर बंधुआ मज़दूरी में फंसा मज़दूर आखिरी बार बेटी को नहीं देख पाया

Author: Varsha Rani Tirkey
Posted on: Friday, 25th October 2019

जब मैंने उसे देखा तब वह कमरे में कोने पर रखी कुर्सी पर वह चुपचाप बैठा था। मैंने पूछा

“आप हिंदी समझते हैं?”

जवाब आया,

“बेटी को नहीं देख पाया, किसको क्या बोलूं।”

मैंने देखा वह अंगुलियों से आंखों का कोना पोंछ रहा था। शायद उसे रोना आ रहा था और वह खुद को रोक रहा था। उसका नाम विनोद केरकेट्टा है। विनोद, असम के टी ट्राइब समुदाय से ताल्लुक रखता है। असम के गोलाघाट ज़िले के नाहरबाड़ी गांव में उसका घर-परिवार है।

जब मैंने उससे नाम पूछा और कहा कि मैं बात करना चाहती हूं, तो उसने कहा कि उसके पास बात करने के लिए ज़्यादा समय नहीं है। असम, अपने घर जाने के लिए कुछ घंटे बाद उसे ट्रेन पकड़नी है। बातें शुरू हुईं तो उसने बताया कि इससे पहले वह कभी दिल्ली नहीं आया था। बस नाम सुना था।

काम की तलाश में असम से केरल आया था विनोद

कुछ महीनों पहले तक विनोद केरल में था। असम में अपने रिश्तेदारों के कहने पर बेहतर काम और पैसे के लिए वह केरल गया था। वहां कुछ महीने तक काम करने के बाद एक दिन उसे अपनी पांच साल की बेटी के गंभीर रूप से बीमार होने की खबर मिली। खबर मिलते ही विनोद ने सबसे पहले अपनी सारी कमाई बेटी के इलाज के लिए घर भेज दी। फिर किसी तरह असम जाने के लिए ट्रेन का टिकट खरीदा।

सारी कमाई घर भेजने के बाद विनोद के पास एक रुपया भी नहीं बचा था लेकिन उसे चिंता सिर्फ अपनी बेटी की थी। वह असम जाने के लिए ट्रेन पर सवार हुआ। वह बस जल्द से जल्द अपने घर, अपनी बेटी के पास पहुंचना चाहता था। यात्रा के दौरान जब बहुत तेज़ प्यास लगी, तब एक स्टेशन पर विनोद नलके से पानी पीने के लिए ट्रेन से उतरा लेकिन वापस ट्रेन पर सवार नहीं हो सका।

वहां मानव तस्करों ने उसे धर दबोचा। विनोद ने बताया, “ट्रेन से उतरकर मैं नलका ढूंढ रहा था, तभी एक अंजान आदमी ने मेरी बांह पकड़ी और मुझसे सवाल करता हुआ अपने साथ घसीटता हुआ ले चला। मुझे पता नहीं क्या हुआ, मैं चल भी नहीं पा रहा था। मुझे यह भी नहीं पता कि वह कौन सा स्टेशन था।”

विनोद ने बताया, “मुझे इतना याद है कि उस अंजान आदमी ने मुझे एक कमरे में ले जाकर बंद कर दिया, जहां पहले से कुछ 11 लोग बंद थे। दो दिन तक कमरे में बंद रखने के बाद एक दूसरा आदमी आया और हमें कहा कि दिल्ली ले जा रहे हैं, वहां काम मिलेगा। मैंने उस आदमी से कहा कि मेरी बेटी बीमार है, मुझे अपने घर असम जाना है।”

मानव तस्करी में फंस कर बंधुआ मज़दूर बना

विनोद के पास चूंकि एक रुपया तक नहीं था इसलिए उससे कहा गया कि वह दिल्ली में कुछ दिन काम करे और फिर कमाई के पैसे लेकर वह घर जा सकता है। उसने बताया, “वो आदमी मुझे छोड़ नहीं रहा था। उसने कहा कि अगर मैं उसके साथ पहले दिल्ली चलूं और कुछ दिन वहां काम करूं तो वह घर जाने में मेरी मदद करेगा। मेरे पास उसकी बात मानने के अलावा कोई दूसरा उपाय नहीं था। मैं बस किसी भी तरह अपने घर पहुंचना चाहता था। अपनी बेटी को देखना चाहता था।”

बेटी का वापस ज़िक्र आया तो विनोद ने गरदन झुका ली, दो पल शांत रहने के बाद उसने कहना शुरू किया, “बाद में पता चला कि मुझे और दूसरे लोगों को दिल्ली नहीं, सोनीपत लाया गया है। हमें वहां एक बिल्डिंग के काम में लगा दिया गया। सुबह 8 बजे से लेकर रात के 8 बजे तक काम करवाया जाता था। टिन के छोटे-छोटे कमरे बने थे, वहीं हम रहते थे, रात में ज़मीन पर ही सोते थे। हमें नहाने धोने का साबुन तक नहीं दिया जाता था। बीमार हों, तब भी काम करना पड़ता था, काम से मना करने पर पीटा जाता था।”

विनोद ने बताया कि जब उसने फिर से घर जाने की बात की तो उसे कहा गया कि पहले 2 महीने यहां काम करो, फिर तुम्हें घर भेज देंगे।

घरवालों ने संस्था की मदद से विनोद को छुड़ाया

विनोद को समझ में आने लगा था, कि ये लोग उसे जाने नहीं देंगे, उसे अपनी बेटी की चिंता सता रही थी। वह बस किसी तरह वहां से निकलना चाहता था। उसने अपनी बेटी का हाल खबर जानने के लिए वहां काम करवाने वाले आदमी का मोबाइल मांगा और मौका देखकर घरवालों को फोन कर अपने बारे में जानकारी दी।

उसके घरवालों ने तुरंत रिश्तेदारों की मदद से दिल्ली में कैथोलिक बिशप्स कांफ्रेंस आफ इंडिया (सीबीसीआई) से संपर्क किया और उनके माध्यम से सामाजिक कार्यकर्ता निर्मल गोराना से बात कर उन्हें पूरा मामला बताया और उनकी मदद मांगी।

निर्मल गोराना अनौपचारिक क्षेत्र के कामगारों के संरक्षण और अधिकारों के लिए काम करते हैं और गैर सरकारी संस्था एक्शनएड इंडिया के साथ जुड़े हैं।

निर्मल ने बताया, “सीबीसीआई से मुझे कॉल आई। उन्होंने मुझे पूरा मामला बताया। मैंने सबसे पहले दिल्ली में स्पेशल पोलिस यूनिट फॉर ईस्ट रीजन (एसपीयूएनआर) को संपर्क किया फिर सोनीपत, हरियाणा में डिप्टी पुलिस कमिश्नर को संपर्क कर सारी जानकारी दी। सीबीसीआई के सदस्य और मैं सोनीपत गए और राइ पुलिस थाने में शिकायत दर्ज कराई, जिसके बाद स्थानीय पुलिस की मदद से विनोद को छुड़वाया गया।”

एक बार को यह मान लें कि विनोद के साथ हुआ वाकया एक बुरा हादसा था, जो दुर्भाग्य से घटा, जब वह ट्रेन से उतरा और तस्करों के चंगुल में फंस गया लेकिन देश में मानव तस्करी के मामले आए दिन सामने आते हैं और ये बेहद चिंता की बात है।

कई सारे मामले तो पुलिस में दर्ज़ तक नहीं होते और मानव तस्करी के पीड़ित ज़बरन यौन व्यापार और बंधुआ मजदूरी जैसी गुलामी की अंधेरी गर्त में ज़िंदगी को बिताने को मजबूर होते हैं।

मजबूरी का फायदा उठाकर आज भी बंधुआ मज़दूरी जारी है

बीते अगस्त महीने में आखिरी सप्ताह में 19 लोगों को महाराष्ट्र के पुणे की एक गुड़ बनाने वाली फैक्ट्री की बंधुआ मजदूरी से छुड़ाया गया। इन लोगों को प्रतिमाह 10000 रुपये के बदले गुड़ बनाने वाली फैक्ट्री काम दिलाने के वादे के साथ उत्तर प्रदेश के एक गांव से पुणे ले जाया गया था।

इन 19 लोगों में महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे लेकिन पुणे ले जाए जाने के बाद इन सब लोगों को फैक्ट्री में बंधुआ मजदूरी में लगा दिया गया, जहां ना रहने की उचित व्यवस्था थी और न ही काम के पैसे मिले, बस मिली तो प्रताड़ना।

बंधुआ मज़दूरी का एक और मामला हाल ही में सामने आया था, जहां लोगों की ज़रूरत और मजबूरी का फायदा उठाकर उन्हें बंधुआ मज़दूरी में धकेला गया था।

Posted by Nirmal Gorana on Tuesday, 25 June 2019

उत्तर प्रदेश के रहने वाले 61 लोगों को अग्रिम भुगतान के बदले एक ईंट भट्टे में काम के लिए गुजरात ले जाया गया। महीनों तक उन लागों को खर्चे के लिए थोड़े बहुत पैसे देकर बेहद खराब स्थिति में दिन रात काम कराया गया और एक रात बिना कुछ बताए, उनके काम का हिसाब किए बिना डरा धमका कर उन्हें भगा दिया गया।

अनौपचारिक क्षेत्र के प्रवासी कामगारों की सुरक्षा के बारे में बात करते हुए निर्मल ने बताया, “प्रवासी मजदूरों के संरक्षण के लिए इंटर स्टेट माइग्रेंट वर्कमेन एक्ट, 1979 है, जिसके तहत काम के लिए बाहर जाने वाले मजदूरों के सुरक्षित प्रवास सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी राज्यों पर है। हमने इस एक्ट के सही क्रियान्वयन की मांग के लिए गुवाहाटी और अगरतला उच्च न्यायालय सहित दूसरे राज्यों के उच्च न्यायालयों में याचिका दायर दी है। एक्ट के क्रियान्यवयन में लापरवाही की वजह से हर साल अनौपचारिक क्षेत्र के लगभग हजार कामगार मानव तस्करी के शिकार होते हैं, जिनमें से 99 प्रतिशत बंधुआ मजदूरी में फंस जाते हैं।”

इंटर स्टेट माइग्रेंट वर्कमेन एक्ट, 1979 के तहत सभी प्रवासी मज़दूरों का संबंधित विभाग में पंजीकरण अनिवार्य है, जिससे कि विभाग प्रवासी मजदूरों की सुरक्षा सुनिश्चित कर सके। विनोद जब काम के लिए असम से केरल गया था, तब यदि उसका नाम विभाग में पंजीकृत होता, तो उसे बंधुआ मज़दूरी से बचाया जा सकता था।

विनोद को सामाजिक संस्थाओं और पुलिस के प्रयास से बंधुआ मजदूरी से छुड़ाकर दिल्ली लाया गया और उसे उसकी बेटी के गुज़र जाने की खबर दी गई।

आखिरकार, विनोद को सकुशल उसके घर असम के नाहरबारी गांव में उसके परिवार के पास पहुंचाया जा सका लेकिन एक पिता का दर्द, जिसने इतना कुछ सहा पर अपनी बेटी को आखिरी बार नहीं देख पाया, उसकी भरपाई नहीं हो सकती।

सुरक्षा हर कामगार का अधिकार है, जिसे सुनिश्चित करने के लिए राज्य सरकारों और सामाजिक संस्थाओं को मिलकर काम करने और इस दिशा में ठोस कदम उठाए जाने की जरूरत है।

Disclaimer: The article has been initially published on Youth Ki Awaaz. Views expressed in the article are of the author’s.

नोट: यह आर्टिकल मूल रूप से यूथ की आवाज़ हिंदी में प्रकाशित किया गया है. आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखिका के हैं.