सन् 1871 में, ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार ने आपराधिक जनजाति अधिनियम पारित किया, जिसमें उत्तर-पश्चिमी प्रांत, पंजाब और अवध के इलाक़े शामिल थे। एक संशोधन के ज़रिए पहले 1876 में बंगाल प्रेसीडेंसी; और, कुछ दशकों बाद 1924 में मद्रास प्रेसीडेंसी तक इस क़ानून की जद में आ चुके थे। इस कठोर कानून के अनुसारः “यदि स्थानीय सरकार के पास इस बात पर यक़ीन करने की पुख़्ता वजह हो कि कोई जनजाति, गिरोह या व्यक्तियों का समूह व्यवस्थित तरीक़े से गैर-जमानती अपराधों में लीन पाया जाता है तो वह काउंसिल में गवर्नर जनरल को मामले की रिपोर्ट, और ऐसी जनजाति, गिरोह या समूह को आपराधिक
जनजाति घोषित करने की सिफ़ारिश कर सकती है।” गवर्नर जनरल द्वारा स्थानीय सरकार की सिफ़ारिश को मान लेने पर इस सूचना को स्थानीय राजपत्र में प्रकाशित; तथा, जिला मजिस्ट्रेट को उस जिले में रहने वाली आपराधिक जनजाति के सदस्यों का एक रजिस्टर बनाना होता था। यदि आपराधिक जनजाति के पास कोई “निश्चित निवास स्थान“ नहीं होता था तो कानून में यह भी प्रावधान था कि उन्हें एक निश्चित स्थान पर बसने के लिए मजबूर किया जाए।
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